Friday, September 19, 2008


हाल ही के दिनों में आयी“Wednesday” वेड्नेसडॆ मात्र मनोरंजन करने वाली एक फिल्म नहीं थी उसने वह कर दिखाय़ा जिसे आज का आम आदमी मजबूरन करने को विवश हो रहा है , मैं व्यक्तिगत तौर पर इस फिल्म को “रंग दे बसंती “के विकास के रूप में देख रहा हूं । नसरूद्दिन शाह ,अनूपम खेर अपने अभिनय की करने वाली बात है बुलन्दियों को इस फिल्म में छूए हैं। वैसे “मुम्बई मेरी जान “Mumbai Meri Jaan भी एक जबरदस्त किस्म की गंभीर फिल्म है। दोनों फिल्मों के निर्देशक बधाई के पात्र हैं जिसने भारतीय फिल्मों की चिरपरिचित लिजलिजाहट से दूर रखा है, इन फिल्मों से बालीवुड ने अपनी एक गंभीर शुरुआत की है इन फिल्मों का एक बहुत व्यापक दर्शक वर्ग तैयार हो रहा है जो मुझ जैसे बालीवुडी निराशावादियों के लिये एक आशान्वित करने वाली बात है
प्रमथेश
[20-09-08
]

Thursday, September 11, 2008


“आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का अनुवाद चिन्तन”
     आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का ही नहीं ,वरन भारतीय साहित्य की आधार भूमिका का भी सृजन किया है | शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के भविष्य को अपने युग में ही रेखांकित कर लिया था। हिन्दी के ग्लोबलाइज़ होने की पहचान को अनुवाद से जोड़कर देखा जा सकता है ।शुक्ल जी अनुवाद को विश्व साहित्य के रूप में बहुत पहले पहचान चुके थे । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में अनुवाद को मात्र साहित्य की मुख्य धारा से ही नहीं जोडा़ बल्कि उसे साहित्य की अनेक विधाओं का उद्गम  केन्द्र भी माना है ,वास्तव में हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं का उद्भव अनुवाद के ही द्वारा हुआ है। आचार्य रामचन्द्र रामचद्र शुक्ल ने करीब बारह ग्रन्थों का अनुवाद हिन्दी में किया, उनमें अधिकांश साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक विषयों के थे जैसे कि विश्व प्रपञ्च,बुद्दचरित,एवं  निबन्ध आदि थे । पेशेवर अनुवादक नहीं होने के बावज़ूद शुक्ल जी का कोई भी अनुवाद शब्दानुवाद नहीं है,जहां तक मैं समझता हूं शुक्ल जी अपनी इस धारा के अकेले इतिहास पुरुष हैं जो हिन्दी साहित्य को अनुवाद से अपटूडॆट करते रहे । विश्व साहित्य की गतिविधियों से हिन्दी समाज को बाखबर रखने एवं उसे विश्वस्तरीय बनाने में अनुवाद का योगदान महत्वपूर्ण है |

     आचार्य शुक्ल ने अंग्रेजी ,बांग्ला ,संस्॑कॄत आदि अनेक भाषाओं से अनुवाद किया है, अर्नेस्ट हैकेल की विश्व विख्यात पुस्तक “दि रिडिल आफ दि यूनिवर्स ”का हिन्दी में “विश्व प्रपंच ” नाम से अनुवाद किया ।हैकेल की यह पुस्तक वैज्ञानिक एवम दार्शनिक विचारों से भरी हुई है, इस पुस्तक का कितना महत्व है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लेनिन ने सोयियत संघ के  पाठ्यक्रम में इसे शामिल करवाया था । लन्दन की थिंकर्स लाइब्रेरी ने विश्व की 140 महानतम पुस्तकों की सूची में इसे तीसरा स्थान दिया है, कहा जाता है कि  हैकेल ने डार्विन से प्रभावित होते हुए विश्व की उत्पत्ति की व्याख्या अपने अनुसार की है। मानवीय विकास में धार्मिक चिन्तनों की तर्कसंगत व्याख्या की है, जिसमें विश्व के अनेक धर्मों की कटु आलोचना भी की गयी है।
       वास्तव में इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण भूमिका धर्म के नाम पर होने वाली अराजकता,अन्धविस्वास को कट्घरे में ख॑ड़ा किया है । पुस्तक हमसे कह्ती है कि ईश्वर साकार है कि निराकार है, लंबी दाढ़ी वाला है कि चार हाथ वाला , अरबी बोलता है कि संस्कॄत, मूर्ति पूजने वालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठाने वालों से इन बातों पर विवाद करने वाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे । मनुष्य को अब बन्द कमरे में घुटने  की जरुरत नहीं अब विकसित मन से प्रकॄति से संवाद स्थापित करने की जरुरत है ।“आनो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत: ” ।  हैकेल को जर्मनी का डार्विन कहा जाता है । शुक्ल जी ने इस पुस्तक का अनुवाद तिलक के गीता रहस्य से प्रभावित होकर किया था, दोनों पुस्तकों का अपना अलग महत्व है ,विश्व प्रपन्च के अनुवाद की भूमिका शुक्ल जी ने करीब 100 पेजों में लिखी है जिसे शुक्ल जी के दार्शनिक चिन्तन का विकास कहा कहा जाता है । Sir Arthur keeth “The Riddle of universe’’ की भूमिका में लिखते हैं कि “Do’nt believe them who tells you that this book and its author are out of date. The search of truth never out of date’’
       यह बात ध्यान देने योग्य है कि विश्व प्रपंच  में हैकेल के चिन्तन के बरअक्स शुक्ल जी ने भारतीय चिन्तन का मत रखा है ।यह बात शायद कम ही लोग जानते हैं कि अर्नेस्ट हैकेल ने भारत की विधिवत यात्रा की थी ,जो बोम्बे के ग्रामीण एवम शहरी भागों मे घूमा । हिन्दी के आलोचक हैकेल के इस तथ्य से अपरचित ही हैं वे पूरी पुस्तक लिखने के बावज़ूद हैकेल के बारे में कुछ भी नहीं बताते हैं । 
हिन्दी में अनुवाद की सबसे अधिक दुर्गति हुई है, आज कोइ भी महान से महान साहित्यकार अनुवादक कहलाने से हिचकिचायेगा । हिन्दी जगत अनुवाद को जब तक खुले मन से नहीं अपनाएगा तब तक उसे  वैश्विक वैचारिकी में स्थान बनाने में संघर्ष करना पडेगा | हिन्दी को खैर ! आज जब सब तरफ भाषाओं का एक अन्तर्जाल बुना जा रहा है, भाषाएँ तकनीकी रूप से भी  बेहद नज़दीक आ गयी हैं  तो हम हिन्दी भाषियों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे हिन्दी में अनुवाद को अधिक से अधिक शामिल करें अन्यथा हमें ही हिन्दी को चिराग लेकर खोजना पड़ेगा ।
प्रमथेश शर्मा
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नयी दिल्ली-067