मैं कायनात में,सय्यारों में भट्कता था
धुएं में धूल में उलझी हुई किरन की तरह
मैं इस जमीं पे भट्कता रहा हूं सदियों तक
गिरा है वक्त से कट्कर जो लम्हा ,उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भट्कता रहा
गली में घर का निशां ढूंढ्ता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भट्कता हूं
लबों से चूम लो आंखों से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमूं तो फिर पनाह मिले
गुलजार
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