Saturday, August 8, 2009

दिल की गलियां बड़ी सूनसान हैं आये कोइ....



परवीन शाकिर:एक महान नाम



परवीन शाकिर आधुनिक उर्दू शाय़री का जाना पहचाना नाम है .. अगर मैं कहूं कि परवीन हिन्दुस्तानी ज़बान की कवयत्री हैं तो गलत नहीं होगा |आज जब हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच सियासी जंग तेज हो गयी है..एक बार फिर से मुस्तरका तहज़ीब को बन्दूक की गोलियों के आगे अपनी मजबूती साबित करनी होगी .... ऐसे में ये नेक काम दोनो देशों में मौज़ूद साहित्यकारों एवम कवियों के द्वारा बहुत आसान हो रह है..उनमें से एक हैं परवीन शाकिर...उनकी शायरी में हर तरफ गंगा जमुनी तहज़ीब की झलक मिलेगी..मसलन..गंगा से..शीर्षक नाम कि कविता कि इन पंक्तियों को देखें....



जुग बीते
दजला से इक भट्की हुई लहर
जब तेरे पवित्र चरनों को छूने आयी तो
तेरी ममता ने अपनी बाहें फैला दीं
और तेरे हरे किनारों पर तब
अनन्नास और कटहल के झुन्ड घिरे हुए
खपरैले वाले घरों के आंगन में
किलकारियां गूंजी
मेरे पुरखॊं की खेती शादाब हुई
और शगुन के तेल ने
दिये की लौ को उंचा किया..
मैं उसी जोत की नन्हीं किरन
फूलों का थाल लिये
तेरे कदमों में फिर आ बैठी हूं
और तुझसे अब
बस एक दिया की तालीब हूं
यूं अन्त तक तेरी जवानी हंसती रहे..

ऐसी ही अनेक कवितायें हमे परवीन के यहां देखने को मिलेंगी..जैसे श्याम मैं तेरी गैया चराउं..कन्यादान आदि... उनकी कविताओं मे भारतीय बिम्ब कै जगह बेहद खूबसूरती के साथ मौजूद हैं..संवेदना के उच्चतम धरातल का धड.कता हुआ संसार है.एक कविता देखिये...



मैने सारी उम्र
किसी मन्दिर में कदम नहीं रक्खा
लेकिन जबसे
तेरी दुआ में
मेरा नाम शरीक हुआ है
तेरे होठों की जुंबिश पर
मेरे अन्दर की दासी के उजले तन में
घन्टियां बजती रहती हैं..
जिस तरह के परिवेश का ताना बाना वे अपनी कविता से बुनती हैं बेहद आकर्षक व मनोहारी लगता है..जैसे लगता है हमारे सामने ही सब कुछ लिखा जा रहा हो...उदाहरण के तौर पर ..
सुबह विसाल की फूट्ती है..
चारों ओर
मदमाती भोर की नीली ठंड्क फैल रही है
शगुन का पहला परिन्द
मुंडेर पर आकर
अभी अभी बैठा है
सब्ज किवाडॊ. के पीछे इक सुर्ख कली मुस्काई
पाज़ेबों की गूंज फ़ज़ा में लहराई
कच्चे रंगों की साडी.में
गीले बाल छुपाये गोरी
घर का सारा बाजरा
आंगन में ले आयी ॥



परवीन कि शायरी में एक कसिस सी है..लगता है सारे ज़माने का दर्द इन पंक्तियों मे छिपा हुआ है..

एक तन्हायी भरी बेचैनी है...एक नमूना देखिये॥

कांप उठ्ती हूं मैं यह सोच के तन्हायी में
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ ले कोई.
जिस तरह ख्वाब मेरे हो गये रेज़ा रेज़ाइस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
अब तो इस राह से वह शख्स गुजरता भी नहींअब किस उम्मीद पे दरवाजे पे झांके कोई.
कोई आहट कोइ आवाज़ कोइ चाप नहींदिल की गलियां बड़ी सूनसान हैं आये कोई..


निश्चित तौर पर उर्दू और हिन्दी के बीच फ़र्क किये बिना हमें परवीन शाकिर जैसी महान रचनाकारों से जिनके यहां भाषा ..देश .. मज़हब ..आदि की कोई दीवार ही नहीं है...जिनको पढ़ते हुए यह लगता है कि हम किसी हिन्दुस्तानी तहजीब के अफ़सानानिगार को पढ़  रहे हैं..हमें बिना किसी भेद भाव के इन कविताओं  को पढ़ना चाहिये...तभी हम एक दूसरे को सच्चे अर्थों में समझ सकेंगें | हमारे बीच की दूरियां कम हो सकेगीं |


                                                             प्रमथेश शर्मा

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