Friday, October 18, 2013
Sunday, October 6, 2013
सिनेमा और स्त्री...कितने
दूर कितने पास
क्लासिकल सिनेमा एक ऐसा विषय है जो व्यावसायिक
सिनेमा की चमक दमक से थोड़ा कम परन्तु महत्व में कहीं उससे भी ज्यादा है | हमारे
आधुनिक संदर्भ में साहित्य और सिनेमा सामाजिक बदलाव के सबसे बड़े माध्यम हैं | इतना
ही नहीं साहित्य और सिनेमा सामाजिक – राजनैतिक सृजन की प्रक्रिया के निर्माता हैं
| ये अभिव्यक्ति के इतने सशक्त एवं प्रभावी माध्यम हैं कि ठहराव में भी थिरकन पैदा
करते हैं | बात जब क्लासिकल सिनेमा में
स्त्री साहित्य के सौंदर्य शास्त्र की या स्त्री जीवन की हो तो यह मुद्दा थोड़ा और
गंभीर एवं प्रासंगिक हो जाता है |
विश्व की आधी आबादी इस सिनेमाई जीवन में कहाँ है उसका स्वरुप कैसा है ? इस पर चर्चा करना जरूरी हो जाता है | सबसे बड़ा सवाल यह है की स्त्री को अपनी शर्तों पर कितना स्वतंत्र होकर प्रस्तुत किया गया है ? प्रस्तुत करने वाले लोग कौन हैं ? खुले जेहन से इस बात को कहें तो यह पूरा मुद्दा ही न्याय एवं पक्षधरता का हो जाता है | ‘स्त्री उपेक्षिता’ में प्रभा खेतान ने यह सवाल उठाया है “यह सच है की स्त्री के बारे में इतना प्रामाणिक विश्लेषण एक स्त्री ही दे सकती है | बहुधा कोई पाठिका जब अपने बारे में पुरुष के विचार और भावनाएं पढ़ती है, तब उसे लेखक की नीयत पर कहीं संदेह नहीं होता है | ‘अन्ना कैरेनिना’ पढ़ते हुए या शरत चंद्र का ‘शेष प्रश्न’ पढ़ते हुए हम बिलकुल भूल जाते हैं कि इस स्त्री चरित्र को पुरुष गढ़ रहा है, पर यह बात भी मन में आती है कि यदि अन्ना का चरित्र किसी स्त्री ने लिखा होता तो क्या वह अन्ना को रेल के नीचे कटकर मरने देती ? यदि देवदास की पारो को स्त्री ने गढ़ा होता तो क्या वह यूं घुट - घुट कर मरती ?”[1]
विश्व की आधी आबादी इस सिनेमाई जीवन में कहाँ है उसका स्वरुप कैसा है ? इस पर चर्चा करना जरूरी हो जाता है | सबसे बड़ा सवाल यह है की स्त्री को अपनी शर्तों पर कितना स्वतंत्र होकर प्रस्तुत किया गया है ? प्रस्तुत करने वाले लोग कौन हैं ? खुले जेहन से इस बात को कहें तो यह पूरा मुद्दा ही न्याय एवं पक्षधरता का हो जाता है | ‘स्त्री उपेक्षिता’ में प्रभा खेतान ने यह सवाल उठाया है “यह सच है की स्त्री के बारे में इतना प्रामाणिक विश्लेषण एक स्त्री ही दे सकती है | बहुधा कोई पाठिका जब अपने बारे में पुरुष के विचार और भावनाएं पढ़ती है, तब उसे लेखक की नीयत पर कहीं संदेह नहीं होता है | ‘अन्ना कैरेनिना’ पढ़ते हुए या शरत चंद्र का ‘शेष प्रश्न’ पढ़ते हुए हम बिलकुल भूल जाते हैं कि इस स्त्री चरित्र को पुरुष गढ़ रहा है, पर यह बात भी मन में आती है कि यदि अन्ना का चरित्र किसी स्त्री ने लिखा होता तो क्या वह अन्ना को रेल के नीचे कटकर मरने देती ? यदि देवदास की पारो को स्त्री ने गढ़ा होता तो क्या वह यूं घुट - घुट कर मरती ?”[1]
प्रभा खेतान का यह सवाल एक तरह से स्त्रीवादी चिंतन की ‘थीम’ है |प्रभा खेतान का
यह सवाल जरूरी और प्रासंगिक है जो आज ही नहीं बार बार दोहराया जाएगा जब तक कि
स्त्री जाति की हिस्सेदारी अधूरी है, उसके
साथ न्याय की प्रक्रिया ‘अनफेथफुल जस्टिस’ की तरह है | स्त्री को समझना
होगा, स्त्री की तरह उसकी अपनी शर्तों पर स्त्री गढ़ने का ढोंग करके नहीं बिलकुल
स्त्री बनकर |पुरुषवादी चेतना के मस्तिष्क को यह भावना बदलनी होगी कि इस
संवेदनशील प्रक्रिया में वह स्त्री पर उपकार कर रहा है | बात जब सिनेमा की हो रही
है तो उसके तईं यही कि जब वह साहित्य से हिस्सेदारी कर रहा है या उससे ‘कंटेंट’ ले
रहा है तो सिनेमा बनाने वाले और उसे देखने वाले दोनों को स्त्री को मात्र एक
‘प्रोडक्ट’ या ‘आइटम कैरेक्टर’ के रूप में ढालने की अपनी लत को छोड़ना होगा कि
स्त्री कोई बिकाऊ उत्पाद नहीं है, वह जीवन है भरा – पूरा लहलहाता जीवन जैसे कि एक
पुरुष का, कहीं उससे भी ज्यादा संवेदनशील, गंभीर और सृजनात्मक | जाँ बर्गर ने लिखा
है “पुरुष अभिनय करते हैं जबकि महिलायें सिर्फ प्रस्तुत होती है, पुरुष महिलाओं
को देखते हैं जबकि महिलायें देखती हैं कि बस वे परदे पर देखी जा रही हैं’’ |[2] यह
उद्धरण बिलकुल सटीक ढंग से स्त्रियों की सिनेमा में उपस्थिति तो बयान कर ही रहा है
साथ ही पुरुष वर्ग के वर्चस्व को आइना भी दिखा रहा है | यह भी एक कड़वा सच है की
क्लासिकल सिनेमा से जनता सीधे रूबरू नहीं हो पाती है | क्योंकि ये बाज़ार को ध्यान
में रखकर नहीं बनाई जाती हैं उसमें सामाजिक सरोकार के कंटेंट होते हैं |
दरअसल पुरुष बहुमत वाले सिनेमा में स्त्री, स्त्री
नहीं होती उसे डिमांड के अनुसार बाज़ार को ध्यान में रखकर गढ़ दिया जाता है | हिन्दी
सिनेमा में स्त्री की हीरो वाली छवि धुंधली और गायब है | उस पर पुरुषवादी सभ्य
समाज का इतना मुलम्मा चढ़ा दिया गया है कि वह उसी में आज भी दम तोड़ने को विवश है | पुरुष
सत्ता ने मन किया तो उसे नारी महिमामयी, कल्याणी देवी या माँ बनाया, नहीं तो उसे
‘जो दिखती वो बिकती है’ के रूप में प्रस्तुत कर दिया | समीक्षक विनोद दास सिनेमा
में स्त्री की उपस्थिति पर लिखते हैं कि “इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यावसायिक
सिनेमा में स्त्री के प्रति रूख बेहद अमानवीय और यांत्रिक रहा है | वहाँ स्त्री एक
मानवीय उपस्थिति के रूप में नहीं एक वस्तु के रूप में प्रकट होती रही है | एक ऐसी
कामोद्दीपक वस्तु जिसे देखकर सामान्यजन अपनी जेब के सिक्के टिकट – खिड़की पर खाली
करने में हिचकिचाएं नहीं | दरअसल व्यावसायिक सिनेमा में स्त्री एक ‘भ्रम’ होती है,
स्त्री नहीं | उसके वास्तविक रूप से काटकर वहाँ उसे यांत्रिक और क्रूरता पूर्ण
मनोरंजन के पिटे – पिटाए अनुभव के दुर्ग में बंद कर दिया जाता है |’’
इसे हम
हाल ही में प्रदर्शित फिल्म ‘डर्टी पिक्चर’ से बखूबी समझ सकते हैं कि कैसे एक
संघर्षशील नायिका के दुखद अंत को व्यावसायिक सिनेमा ने ‘मसाला’ लगाकर परोसा | अभाव
और संघर्ष के बीच मरने वाली एक वास्तविक स्त्री के जीवन पर फिल्म बनाकर मिलन
लथुरिया ने करोंड़ों कमाए | यह इस पुरुष वर्चस्व वाले बाज़ारवादी समाज की कड़वी हकीकत
है | फिर वही सवाल कौंधता है कि अगर ‘सिल्क स्मिता’ (विजया लक्ष्मी ) के जीवन पर
अपर्णा सेन या दीपा मेहता फिल्म बनाती तो क्या फिल्म में सिल्क वैसी ही दिखती जैसा कि मिलन लथुरिया ने दिखाया है |
क्या तब फिल्म का नाम ‘डर्टी पिक्चर’ होता ? ‘विजया लक्ष्मी’ को ‘सिल्क स्मिता’
नाम किसने दिया ? एक पुरुषिया उपभोक्तावादी
बाज़ार में ‘विजयालक्ष्मी’ का नाम ‘सिल्क
स्मिता’ पड़ गया और उसकी जीवनी ‘डर्टी पिक्चर’ के रूप में बेंच दी गयी | यही स्त्री जीवन की बिडम्बना है | इसी
सामाजिक जड़तावाद के खिलाफ स्त्री को एकजुट होना है | ताकि वह उपभोक्तावाद की भेंट
न चढ़े |
स्त्री चिंतन का पूरा विमर्श ‘आइडेंटिटी
एक्जिस्टेंस’ का मुद्दा है, अपनी अलग पहचान को लेकर है, स्त्री न तो पुरुष से कमतर दिखना चाहती है न अधिक, वह
बराबरी चाहती है पूरे सम्मान के साथ |
गौरतलब है कि स्त्री
सौंदर्य शास्त्र में स्त्री संबंधी चिन्तनों में शामिल मुद्दों में भाषा का मुद्दा
प्रमुख रहा है वह भाषा की स्त्रीवादी चेतना को फिर से गढ़ना चाहती है |
स्त्रीवादी
लेखिकाएं भाषा की निर्मिति अपनी शर्तों पर करना चाहती हैं, अपनी संवेदना के अनुरूप
|फिल्म की भाषा से तो उसे सबसे अधिक आपत्ति है हम फिल्मों के विश्लेषण के क्रम में
देखेंगें कि कैसे पुरुष एक उदात्त स्त्री चरित्र के मुख से अपनी बात कहलवाता है
चाहे वह 1936 के दौर की ‘अछूत कन्या’ फिल्म की कस्तूरी हो या 1963 के बंदिनी की
‘कल्याणी’ | वह स्वर तब बदलती है जब कोई महिला फिल्मकार ‘स्त्री चरित्र’ को ‘स्त्रीत्व’
की अपनी भाषा देती है | तब वह सवाल करती है, अपने अस्तित्व को लेकर अपने हक को लेकर
|
उमेश चतुर्वेदी का
लेख ‘जे. एन. यू. में जज्बातों से खेल’ पढ़ा | लेख में उमेश जी की जे. एन. यू. के
प्रति खीझ और गुस्सा स्पष्ट रूप से झलकता है | जे. एन. यू. उमेश जी जैसे आलोचकों
को भी पूरी हमदर्दी और तन्मयता के साथ जगह देता है क्योंकि असहमति भी हमारे भारतीय
लोकतंत्र और समाज का ही हिस्सा है | हमारे संविधान ने असहमति पूर्ण अभिव्यक्ति को अधिकार
का दर्ज़ा दे रखा है | यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने इन मूलभूत अधिकारों की
रक्षा कहाँ तक कर सकता है |
पूरी भारतीय मीडिया
में इन दिनों जे. एन. यू. में एक छात्र संगठन (न्यू मटेरयलिस्ट)
द्वारा प्रस्तावित ‘बीफ और पोर्क फूड फेस्टिवल’
कराने का मुद्दा छाया हुआ है | यह छात्र
संगठन हाल ही में संपन्न हुए जे. एन. यू. छात्र संगठन के चुनाव में अपने इस तड़क -
भड़क वाले मुद्दे के साथ चुनाव लड़ा, जिसे जे. एन. यू. छात्र समुदाय ने सिरे से खारिज़
कर दिया | बाद में तमाम प्रकार की राजनैतिक सरगर्मियों एवं उच्च न्यायालय के
हस्तक्षेप के बाद कानूनी कदम उठाकर जे. एन. यू. प्रशासन ने इस संगठन के एक सदस्य को निलंबित कर दिया और कईयों
को नोटिस भेजा | इस प्रस्तावित फूड फेस्टिवल को लेकर कुछ राजनैतिक संगठन अपनी
रोटियां सकने में लग गए हैं, जिनसे सतर्क रहने की जरुरत है | प्रशासन द्वारा
जल्दबाजी में उठाये गए इस कदम को लेकर जे. एन. यू. कैम्पस में बहस अब भी जारी है |
बिडम्बना यह है कि जब
इस देश की सत्तर फीसदी से अधिक आबादी को ठीक से एक वक्त का भोजन भी मयस्सर नहीं हो पाता है ऐसे में उस देश के ऐसे
जागरूक और प्रबुद्ध कैम्पस में जहाँ सामाजिक न्याय और समता की लड़ाई लड़ी जा रही
हो,भूख और गरीबी के खिलाफ प्रदर्शन करने को लेकर यहाँ के छात्र संगठन सरकार की
लाठियां खाते हैं ऐसे में बीफ और पोर्क फूड
फेस्टिवल कराने की मांग रखने वाले इस संगठन पर तरस आता है | उसके सामाजिक सरोकारों के प्रति गंभीरता और
निष्ठा पर संदेह होता है | यह फूड फेस्टिवल स्वाद का मुद्दा हो सकता है भोजन के
अधिकार का कत्तई नहीं | ‘फेस्टिवल’ ‘भूख’
की जगह नहीं ले सकता, यह भूख का मजाक उड़ाता मालूम देता है |
‘बीफ और पोर्क फूड फेस्टिवल’ के बहाने उमेश जी ने अपना सारा गुस्सा
जे. एन. यू. की छात्र विरासत पर उतार दिया है,उन्हें इत्मीनान से इस
विश्वविद्यालय के बारे में सोचना और समझना
चाहिए | उनकी शिकायत की गंभीरता का अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि वे 1969 में स्थापित एक विश्वविद्यालय से 1942 के
स्वतंत्रता संघर्ष में सहयोग की अपेक्षा करते हैं |
उन्हें मालूम होना
चाहिए कि आपात काल के दौरान इस कैम्पस का
छात्र समुदाय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इस कैम्पस में घुसने नहीं
दिया,सैकड़ों छात्र इंदिरा गाँधी की गाड़ी के आगे ज़मीन पर लेट गए | इंदिरा गांधी को
वापिस लौटना पड़ा | परिणामस्वरूप छात्रों को पुलिस की लाठियां खानी पड़ी और सैकड़ों
छात्र जेल में गए | तब व्यापक छात्र आंदोलन के चलते यह कैम्पस अनिश्चित काल के लिए
बंद कर दिया गया | जे पी आंदोलन के दौरान
इस विश्वद्यालय ने गंभीर भूमिका निभाई थी | उसी आंदोलन के फलस्वरूप इस
विश्वविद्यालय में पहली बार गैर वामपंथी विचारधारा वाला छात्रसंघ बना | लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के
समर्थन में खड़ा यह विश्विद्यालय कभी भी अपने इस मौलिक चरित्र से समझौता नहीं किया
है | इस कैम्पस के छात्रों ने सिक्किम के भूकंप पीड़ितों, बिहार के बाढ़ पीड़ितों, विदर्भ
के आत्महत्या करने को मजबूर किसानों,गुडगाँव के मारूति कारखाने के मजदूरों और देश
भर में भूमिअधिग्रहण से सम्बंधित तमाम विस्थापितों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लड़ाई साझे तौर पर
लड़ी है |
जिस नेस्कैफे आउटलेट
के मुद्दे की बात बड़े जायके के साथ उमेश जी ने पेश किया है,नेस्कैफे के कैम्पस में
विरोध का सीधा और साफ़ मतलब यह है कि जे एन यू
भारत के शिक्षण संस्थानों के
‘प्राइवेटाइजेशन’ का विरोध करता है,वह विश्वविद्यालयों को ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों’
का अड्डा नहीं बनने देना चाहता है | अभी भी यह कैम्पस यू पी ए सरकार द्वारा किये
जा रहे शिक्षा के निजीकरण एवं उच्च शिक्षा को विदेशी संस्थानों के हवाले किये जाने
के खिलाफ़ संघर्ष कर रहा है | यह कितना त्रासद है कि किसी देश की रीढ़ समझे जाने
वाली शिक्षा व्यवस्था को यह सरकार ब्रिटेन,अमेरिका,जर्मनी,आदि देशों के हवाले कर
रही है |
विद्यार्थियों के हक
के साथ – साथ जे एन यू के मजदूरों की भी लड़ाई इस विश्वविद्यालय का छात्र समुदाय
लड़ता आया है | भारत के कोने कोने में चल रहे जनसंघर्षों और मानव अधिकारों की लड़ाई
में यहाँ का छात्र समुदाय कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है | इस तरह के मुद्दे जे एन यू के नाम पर उपलब्धि गिनाने के लिए नहीं
हैं |
यह विश्वविद्यालय
समता और सामजिक बदलाव की लड़ाई लड़ रहा है,जिसमें उसे बाकी संस्थानों के सहयोग की
जरुरत है | जे एन यू का अभी लहलहाता हुआ
भरा पूरा भविष्य है जिससे इस देश को अथाह उम्मीदें हैं | रही बात जे एन यू के
छात्रों के ‘अमेरिका और मुनिरका जाने की’
तो दोनों इस देश की शिक्षा - व्यवस्था की जर्जर हालत बयां करते हैं, लाखों भारतीय
युवाओं की बेरोजगारी की तस्वीर पेश करते हैं जिसके चलते वे हताश हैं पर उम्मीदवर
हैं कि एक दिन वे यह तस्वीर जरुर बदलेंगें
| कहना पड़ रहा है -
या रब वो न समझे हैं न समझेंगें मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और ||
प्रमथेश शर्मा
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