Sunday, October 6, 2013

                   
                    
              जे एन यू : दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और 



                उमेश चतुर्वेदी का लेख ‘जे. एन. यू. में जज्बातों से खेल’ पढ़ा | लेख में उमेश जी की जे. एन. यू. के प्रति खीझ और गुस्सा स्पष्ट रूप से झलकता है | जे. एन. यू. उमेश जी जैसे आलोचकों को भी पूरी हमदर्दी और तन्मयता के साथ जगह देता है क्योंकि असहमति भी हमारे भारतीय लोकतंत्र और समाज का ही हिस्सा है |  हमारे  संविधान ने असहमति पूर्ण अभिव्यक्ति को अधिकार का दर्ज़ा दे रखा है | यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने इन मूलभूत अधिकारों की रक्षा कहाँ तक कर सकता है |
पूरी भारतीय मीडिया में इन दिनों जे. एन. यू. में एक छात्र संगठन (न्यू  मटेरयलिस्ट)  द्वारा प्रस्तावित ‘बीफ और पोर्क फूड फेस्टिवल’ कराने का मुद्दा  छाया हुआ है | यह छात्र संगठन हाल ही में संपन्न हुए जे. एन. यू. छात्र संगठन के चुनाव में अपने इस तड़क - भड़क वाले मुद्दे के साथ चुनाव लड़ा, जिसे जे. एन. यू. छात्र समुदाय ने सिरे से खारिज़ कर दिया | बाद में तमाम प्रकार की राजनैतिक सरगर्मियों एवं उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कानूनी कदम उठाकर जे. एन. यू. प्रशासन ने इस  संगठन के एक सदस्य को निलंबित कर दिया और कईयों को नोटिस भेजा | इस प्रस्तावित फूड फेस्टिवल को लेकर कुछ राजनैतिक संगठन अपनी रोटियां सकने में लग गए हैं, जिनसे सतर्क रहने की जरुरत है | प्रशासन द्वारा जल्दबाजी में उठाये गए इस कदम को लेकर जे. एन. यू. कैम्पस में बहस अब भी जारी है |
बिडम्बना यह है कि जब इस देश की सत्तर फीसदी से अधिक आबादी को ठीक से एक वक्त का भोजन भी  मयस्सर नहीं हो पाता है ऐसे में उस देश के ऐसे जागरूक और प्रबुद्ध कैम्पस में जहाँ सामाजिक न्याय और समता की लड़ाई लड़ी जा रही हो,भूख और गरीबी के खिलाफ प्रदर्शन करने को लेकर यहाँ के छात्र संगठन सरकार की लाठियां खाते हैं ऐसे  में बीफ और पोर्क फूड फेस्टिवल कराने की मांग रखने वाले इस संगठन पर तरस आता है |  उसके सामाजिक सरोकारों के प्रति गंभीरता और निष्ठा पर संदेह होता है | यह फूड फेस्टिवल स्वाद का मुद्दा हो सकता है भोजन के अधिकार का कत्तई नहीं | ‘फेस्टिवल’ ‘भूख’  की जगह नहीं ले सकता, यह भूख का मजाक उड़ाता मालूम देता है |
‘बीफ और पोर्क फूड  फेस्टिवल’ के बहाने उमेश जी ने अपना सारा गुस्सा जे. एन. यू.  की छात्र  विरासत पर उतार दिया है,उन्हें इत्मीनान से इस विश्वविद्यालय  के बारे में सोचना और समझना चाहिए | उनकी शिकायत की गंभीरता का अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि वे 1969 में स्थापित एक विश्वविद्यालय से 1942  के  स्वतंत्रता संघर्ष में सहयोग की अपेक्षा करते हैं |
उन्हें मालूम होना चाहिए कि  आपात काल के दौरान इस कैम्पस का छात्र समुदाय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इस कैम्पस में घुसने नहीं दिया,सैकड़ों छात्र इंदिरा गाँधी की गाड़ी के आगे ज़मीन पर लेट गए | इंदिरा गांधी को वापिस लौटना पड़ा | परिणामस्वरूप छात्रों को पुलिस की लाठियां खानी पड़ी और सैकड़ों छात्र जेल में गए | तब व्यापक छात्र आंदोलन के चलते यह कैम्पस अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया |  जे पी आंदोलन के दौरान इस विश्वद्यालय ने गंभीर भूमिका निभाई थी | उसी आंदोलन के फलस्वरूप इस विश्वविद्यालय में पहली बार गैर वामपंथी विचारधारा वाला छात्रसंघ बना |  लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के समर्थन में खड़ा यह विश्विद्यालय कभी भी अपने इस मौलिक चरित्र से समझौता नहीं किया है | इस कैम्पस के छात्रों ने सिक्किम के भूकंप पीड़ितों, बिहार के बाढ़ पीड़ितों, विदर्भ के आत्महत्या करने को मजबूर किसानों,गुडगाँव के मारूति कारखाने के मजदूरों और देश भर में भूमिअधिग्रहण से सम्बंधित तमाम विस्थापितों और  अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लड़ाई साझे तौर पर लड़ी है  |
जिस नेस्कैफे आउटलेट के मुद्दे की बात बड़े जायके के साथ उमेश जी ने पेश किया है,नेस्कैफे के कैम्पस में विरोध का सीधा और साफ़ मतलब यह है कि जे एन यू  भारत के  शिक्षण संस्थानों के ‘प्राइवेटाइजेशन’ का विरोध करता है,वह विश्वविद्यालयों को ‘बहुराष्ट्रीय कंपनियों’ का अड्डा नहीं बनने देना चाहता है | अभी भी यह कैम्पस यू पी ए सरकार द्वारा किये जा रहे शिक्षा के निजीकरण एवं उच्च शिक्षा को विदेशी संस्थानों के हवाले किये जाने के खिलाफ़ संघर्ष कर रहा है | यह कितना त्रासद है कि किसी देश की रीढ़ समझे जाने वाली शिक्षा व्यवस्था को यह सरकार ब्रिटेन,अमेरिका,जर्मनी,आदि देशों के हवाले कर रही है |
विद्यार्थियों के हक के साथ – साथ जे एन यू के मजदूरों की भी लड़ाई इस विश्वविद्यालय का छात्र समुदाय लड़ता आया है | भारत के कोने कोने में चल रहे जनसंघर्षों और मानव अधिकारों की लड़ाई में यहाँ का छात्र समुदाय कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है |  इस तरह के मुद्दे  जे एन यू के नाम पर उपलब्धि गिनाने के लिए नहीं हैं |
यह विश्वविद्यालय समता और सामजिक बदलाव की लड़ाई लड़ रहा है,जिसमें उसे बाकी संस्थानों के सहयोग की जरुरत है  | जे एन यू का अभी लहलहाता हुआ भरा पूरा भविष्य है जिससे इस देश को अथाह उम्मीदें हैं | रही बात जे एन यू के छात्रों के  ‘अमेरिका और मुनिरका जाने की’ तो दोनों इस देश की शिक्षा - व्यवस्था की जर्जर हालत बयां करते हैं, लाखों भारतीय युवाओं की बेरोजगारी की तस्वीर पेश करते हैं जिसके चलते वे हताश हैं पर उम्मीदवर हैं कि एक दिन वे यह तस्वीर  जरुर बदलेंगें |  कहना पड़ रहा है -

                            या रब वो न समझे हैं न समझेंगें मेरी बात
                           दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और ||


                                                                                                     प्रमथेश शर्मा 

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